Kisi Ko De Ke Dil Koi Nawaa Sanj-E-Fugaan Kyun Ho ? / किसी को दे के दिल कोई नवासंज-ए-फ़ुग़ाँ क्यों हो ?

तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो,
मुझ को भी पूछ्ते रहो तो क्या गुनाह हो ।
  • Neena Gupta.
किसी को दे के दिल कोई नवासंज-ए-फ़ुग़ाँ क्यों हो ?
न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में ज़ुबाँ क्यों हो ?

वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा,
तो फिर ऐ संग-ए-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यों हो ?

यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं,
अदू के हो लिये जब तुम तो मेरा इम्तिहाँ क्यों हो ?

क़फ़स में मुझ से रूदाद-ए-चमन कहते न डर हमदम,
गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियाँ क्यों हो ?
  • Chitra Singh.
  • Mirza Asadullah Khan 'Ghalib'.

किसी को दे के दिल कोई नवासंज-ए-फ़ुग़ाँ क्यों हो ?
न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में ज़ुबाँ क्यों हो ?

वो अपनी ख़ू न छोड़ेंगे हम अपनी वज़ा क्यों बदलें,
सुबुकसार बनके क्या पूछें कि हम से सरगिराँ क्यों हो ?

किया ग़मख़्वार ने रुसवा लगे आग इस मुहब्बत को,
न लाये ताब जो ग़म की वो मेरा राज़दाँ क्यों हो ?

वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा,
तो फिर ऐ संग-ए-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यों हो ?

क़फ़स में मुझ से रूदाद-ए-चमन कहते न डर हमदम,
गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियाँ क्यों हो ?

ये कह सकते हो हम दिल में नहीं हैं पर ये बताओ,
कि जब दिल में तुम्हीं तुम हो तो आँखों से निहाँ क्यों हो ?

ग़लत है जज़बा-ए-दिल का शिकवा देखो जुर्म किसका है,
न खींचो गर तुम अपने को कशाकश दर्मियाँ क्यों हो ?

ये फ़ितना आदमी की ख़ानावीरानी को क्या कम है,
हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आस्माँ क्यों हो ?

यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं,
अदू के हो लिये जब तुम तो मेरा इम्तिहाँ क्यों हो ?

कहा तुमने कि क्यों हो ग़ैर के मिलने में रुसवाई,
बजा कहते हो सच कहते हो फिर कहियो कि हाँ क्यों हो ?

निकाला चाहता है काम क्या तानों से तू 'ग़ालिब',
तेरे बेमहर कहने से वो तुझ पर मेहरबाँ क्यों हो ?


          तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो,
मुझ को भी पूछ्ते रहो तो क्या गुनाह हो ।

बच्ते नहीं मुवाख़ज़ह-ए रोज़-ए हश्र से,
क़ातिल अगर रक़ीब है तो तुम गवाह हो ।

क्या वह भी बे-गुनह-कुश-ओ-हक़ ना-शिनास हैं,
माना कि तुम बशर नहीं ख़्वुर्शीद-ओ-माह हो ।

उभ्रा हुआ नक़ाब में है उन के एक तार,
मर्ता हूँ मैं कि यह न किसी की निगाह हो ।

जब मै-कदह छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद,
मस्जिद हो मद्रसह हो कोई ख़ानक़ाह हो ।

सुनते हैं जो बिहिश्त की त`रीफ़ सब दुरुस्त,
लेकिन ख़ुदा करे वह तिरा जल्वह-गाह हो ।

'ग़ालिब' भी गर न हो तो कुछ ऐसा ज़रर नहीं,
दुनिया हो या रब और मिरा बाद्शाह हो ।