Hazaron Khwahishen Aisi Ke Har Khwahish Pe Dam Nikale. / हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अर्माँ लेकिन फिर भी कम निकले ।
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन,
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले ।
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले ।
ख़ुदा के वास्ते पर्दा ना काबे से उठा ज़ालिम,
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफ़िर सनम निकले ।
कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़,
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले ।
बहुत निकले मेरे अर्माँ लेकिन फिर भी कम निकले ।
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन,
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले ।
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले ।
ख़ुदा के वास्ते पर्दा ना काबे से उठा ज़ालिम,
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफ़िर सनम निकले ।
कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़,
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले ।
- Mirza Asadullah Khan 'Ghalib'.
- Jagjit Singh.
- Complete Ghazal......
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अर्माँ लेकिन फिर भी कम निकले ।
बहुत निकले मेरे अर्माँ लेकिन फिर भी कम निकले ।
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर,
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले ।
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले ।
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन,
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले ।
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले ।
भरम खुल जाये ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का,
अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले ।
अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले ।
मगर लिखवाये कोई उसको ख़त तो हमसे लिखवाये,
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर क़लम निकले ।
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर क़लम निकले ।
हुई इस दौर में मंसूब मुझसे बादा-अशामी,
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले ।
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले ।
हुई जिनसे तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की,
वो हमसे भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले ।
वो हमसे भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले ।
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले ।
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले ।
ज़र कर जोर सीने पर कि तीर-ए-पुर्सितम निकले,
जो वो निकले तो दिल निकले जो दिल निकले तो दम निकले ।
जो वो निकले तो दिल निकले जो दिल निकले तो दम निकले ।
ख़ुदा के वास्ते पर्दा ना काबे से उठा ज़ालिम,
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफ़िर सनम निकले ।
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफ़िर सनम निकले ।
कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़,
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले ।
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले ।