Dialogue & Yeh Na Thi Hamari Kismat Ke Visaal-E-Yaar Hota. - I / ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता,

पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है ?
कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या ?
  • Naseeruddin Shah.
नक़्श फ़रियादी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का,
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का ।

कावे-कावे सख़्तजानी हाय तन्हाई न पूछ...............
  • Jagjit Singh.
ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता,
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता ।

कहूँ किस से मैं के क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है,
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता ।

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को,
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ।
  • Mirza Asadullah Khan 'Ghalib'.
  • Chitra Singh.

  • Complete Ghazal.......
ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता,
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता ।

तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना,
के ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता ।

तेरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अह्दबोदा,
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तवार होता ।

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को,
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ।

ये कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह,
कोई चारासाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता ।

रग-ए-सन्ग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता,
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता ।

ग़म अगर्चे जाँगुसिल है, पे कहाँ बचें के दिल है,
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता ।

कहूँ किस से मैं के क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है,
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता ।

हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्योँ न ग़र्क़-ए-दरिया,
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता ।

उसे कौन देख सकता कि यगना है वो यक्ता,
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता ।

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'ग़ालिब',
तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता ।



  • Complete Ghazal.......
नक़्श फ़रियादी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का,
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का ।

कावे-कावे सख़्तजानी हाय तन्हाई न पूछ,
सुबह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का ।

जज़्बा-ए-बेइख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिये,
सीना-ए-शम्शीर से बाहर है दम शम्शीर का ।

आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाये,
मुद्दा अन्क़ा है अपने आलम-ए-तक़रीर का ।

बस के हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़र-ए-प,
मू-ए-आतिशदीदा है हल्क़ा मेरी ज़ंजीर का ।

  • Complete Ghazal.......
ज़ौर से बाज़ आये पर बाज़ आयें क्या ?
कहते हैं हम तुम को मुँह दिखलायें क्या ?

रात-दिन गर्दिश में हैं सात आस्माँ,
हो रहेगा कुछ न कुछ घबरायें क्या ?

लाग हो तो उस को हम समझें लगाव,
जब न हो कुछ भी तो धोखा खायें क्या ?

हो लिये क्यों नामाबर के साथ-साथ,
या रब अपने ख़त को हम पहुँचायें क्या ?

मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़र ही क्यों न जाये,
आस्तान-ए-यार से उठ जायें क्या ?

उम्र भर देखा किये मरने की राह,
मर गए पर देखिये दिखलायें क्या ?

पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है,
कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या ?