Dialogue & Sab Kahan Kuch Lala-O-Gul Mein Numaya Ho Gaye. / सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं,

लाज़िम था कि देखो मेरा रस्ता कोई दिन और,
तन्हा गये क्यों अब रहो तन्हा कोई दिन और ।

जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे,
क्या ख़ूब! क़यामत का है गोया कोई दिन और ।

तुम माह-ए-शब-ए-चरदुहुम थे मेरे घर के,
फिर क्यों न रहा घर का वो नक़्शा कोई दिन और ।

तुम कौन से ऐसे थे खरे दाद-ओ-सितद के,
करता मलकउलमौत तक़ाज़ा कोई दिन और ।
  • Naseeruddin Shah.
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं,
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं ।

रंज से ख़ूगर हुआ इन्साँ तो मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझ पर पड़ि इतनी के आसाँ हो गईं ।

यूँ ही गर रोता रहा 'ग़ालिब', तो ऐ अह्ल-ए-जहाँ,
देखना इन बस्तियों को तुम कि वीराँ हो गईं ।
  • Mirza Asadullah Khan 'Ghalib'.
  • Jagjit Singh.

  • Complete Ghazal.......
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं,
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं ।

याद थी हमको भी रन्गा रन्ग बज़्माराईयाँ,
लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निसियाँ हो गईं ।

थीं बनातुन्नाश-ए-गर्दूँ दिन को पर्दे में निहाँ,
शब को उनके जी में क्या आई कि उरियाँ हो गईं ।

क़ैद में याक़ूब ने ली गो न यूसुफ़ की ख़बर,
लेकिन आँखें रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ हो गईं ।

सब रक़ीबों से हों नाख़ुश, पर ज़नान-ए-मिस्र से,
है ज़ुलैख़ा ख़ुश के मह्व-ए-माह-ए-कनाँ हो गईं ।

जू-ए-ख़ूँ आँखों से बहने दो कि है शाम-ए-फ़िराक़,
मैं ये समझूँगा के शमएं हो फ़रोज़ाँ हो गईं ।

इन परीज़ादों से लेंगे ख़ुल्द में हम इन्तक़ाम,
क़ुदरत-ए-हक़ से यही हूरें अगर वाँ हो गईं ।

नींद उसकी है, दिमाग़ उसका है, रातें उसकी हैं,
तेरी ज़ुल्फ़ें जिसके बाज़ू पर परिशाँ हो गईं ।

मैं चमन में क्या गया, गोया दबिस्ताँ खुल गया,
बुल-बुलें सुन कर मेरे नाले, ग़ज़लख़्वाँ हो गईं ।

वो निगाहें क्यूँ हुई जाती हैं या रब दिल के पार,
जो मेरी कोताही-ए-क़िस्मत से मिज़्श्गाँ हो गईं ।

बस कि रोका मैं ने और सीने में उभरें पै ब पै,
मेरी आहें बख़िया-ए-चाक-ए-गरीबाँ हो गईं ।

वाँ गया भी मैं तो उनकी गालियों का क्या जवाब,
याद थी जितनी दुआयें, सर्फ़-ए-दर्बाँ हो गईं ।

जाँफ़िज़ा है बादा, जिसके हाथ में जाम आ गया,
सब लकीरें हाथ की गोया रग-ए-जाँ हो गईं ।

हम मुवहिहद हैं, हमारा केश है तर्क-ए-रूसूम,
मिल्लतें जब मिट गैइं, अज्ज़ा-ए-ईमाँ हो गईं ।

रंज से ख़ूगर हुआ इन्साँ तो मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझ पर पड़ि इतनी के आसाँ हो गईं ।

यूँ ही गर रोता रहा 'ग़ालिब', तो ऐ अह्ल-ए-जहाँ,
देखना इन बस्तियों को तुम कि वीराँ हो गईं ।

  • Complete Ghazal......
लाज़िम था कि देखो मेरा रस्ता कोई दिन और,
तन्हा गये क्यों अब रहो तन्हा कोई दिन और ।

मिट जायेगा सर, गर तेरा पथ्थर न घिसेगा,
हूँ दर पे तेरे नासियाफ़र्सा कोई दिन और ।

आये हो कल और आज ही कहते हो कि जाऊँ,
माना कि हमेशा नहीं अच्चा कोई दिन और ।

जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे,
क्या ख़ूब! क़यामत का है गोया कोई दिन और ।

हाँ ऐ फ़लक-ए-पीर, जवाँ था अभी आरिफ़,
क्या तेरा बिगड़ता जो न मरता कोई दिन और ।

तुम माह-ए-शब-ए-चरदुहुम थे मेरे घर के,
फिर क्यों न रहा घर का वो नक़्शा कोई दिन और ।

तुम कौन से ऐसे थे खरे दाद-ओ-सितद के,
करता मलकउलमौत तक़ाज़ा कोई दिन और ।

मुझसे तुम्हें नफ़्रत सही, नय्यर से लड़ाई,
बछों का भी देखा न तमाशा कोई दिन और ।

गुज़री न बहरहाल या मुद्दत ख़ुशी-नाख़ुश,
करना था जवाँमर्ग! गुज़ारा कोई दिन और ।

नादाँ हो जो कहते हो कि क्यों जीते हो 'ग़ालिब',
क़िस्मत में है मरने की तमन्ना कोई दिन और ।