Dialogue & Kab Se Hoon Kya Bataon Jahan-E-Kharab Mein. / कब से हूँ क्या बताऊँ जहाँ-ए-ख़राब में,
क़र्ज़ की पीते थे मय और कहते थे के हाँ,
रंग लावेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन ।
मय से गरज निशात किस रूह सियाह को,
एक गुना बेखुदी मुझे दिन रात चाहिए ।
पिला दे ओक से साक़ी जो हमसे नफ़्रत है,
प्याला गर नहीं देता न दे, शराब तो दे ।
दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हमको,
न दे जो बोसा तो मूँह से कहीं जवाब तो दे ।
रंग लावेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन ।
मय से गरज निशात किस रूह सियाह को,
एक गुना बेखुदी मुझे दिन रात चाहिए ।
पिला दे ओक से साक़ी जो हमसे नफ़्रत है,
प्याला गर नहीं देता न दे, शराब तो दे ।
दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हमको,
न दे जो बोसा तो मूँह से कहीं जवाब तो दे ।
- Naseeruddin Shah.
क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ,
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में ।
कब से हूँ क्या बताऊँ जहाँ-ए-ख़राब में,
शब हाय हिज्र को भी रखूँ गर हिसाब में ।
ता फिर न इन्तज़ार में नींद आये उम्र भर,
आने का अहद कर गये आये जो ख़्वाब में ।
मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम,
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में ।
'ग़ालिब' छुटी शराब, पर अब भी कभी कभी,
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में ।
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में ।
कब से हूँ क्या बताऊँ जहाँ-ए-ख़राब में,
शब हाय हिज्र को भी रखूँ गर हिसाब में ।
ता फिर न इन्तज़ार में नींद आये उम्र भर,
आने का अहद कर गये आये जो ख़्वाब में ।
मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम,
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में ।
'ग़ालिब' छुटी शराब, पर अब भी कभी कभी,
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में ।
- Mirza Asadullah Khan 'Ghalib'.
- Jagjit Singh.
- Complete Ghazal........
मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में,
काफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अज़ाब में ।
ता फिर न इन्तज़ार में नींद आये उम्र भर,
आने का अहद कर गये आये जो ख़्वाब में ।
मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम,
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में ।
मैं मुज़्तरिब हूँ वस्ल में ख़ौफ़-ए-रक़ीब से,
डाला है तुम को वह्म ने किस पेच-ओ-ताब में ।
है तेवरी चढ़ी हुई अंदर नक़ाब के,
है इक शिकन पड़ी हुई तर्फ़-ए-नक़ाब में ।
वो नाला दिल में ख़स के बराबर जगह न पाये,
जिस नाले से शिगाफ़ पड़े आफ़ताब में ।
'ग़ालिब' छुटी शराब, पर अब भी कभी कभी,
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में ।
काफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अज़ाब में ।
कब से हूँ क्या बताऊँ जहाँ-ए-ख़राब में,
शब हाय हिज्र को भी रखूँ गर हिसाब में ।
शब हाय हिज्र को भी रखूँ गर हिसाब में ।
ता फिर न इन्तज़ार में नींद आये उम्र भर,
आने का अहद कर गये आये जो ख़्वाब में ।
क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ,
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में ।
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में ।
मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम,
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में ।
जो मुन्किर-ए-वफ़ा हो फ़रेब उस पे क्या चले,
क्यूँ बदगुमाँ हूँ दोस्त से दुश्मन के बाब में ।
क्यूँ बदगुमाँ हूँ दोस्त से दुश्मन के बाब में ।
मैं मुज़्तरिब हूँ वस्ल में ख़ौफ़-ए-रक़ीब से,
डाला है तुम को वह्म ने किस पेच-ओ-ताब में ।
मै और हिज़्ज़-ए-वस्ल, ख़ुदासाज़ बात है,
जाँ नज़्र देनी भूल गया इज़्तिराब में ।
जाँ नज़्र देनी भूल गया इज़्तिराब में ।
है तेवरी चढ़ी हुई अंदर नक़ाब के,
है इक शिकन पड़ी हुई तर्फ़-ए-नक़ाब में ।
लाखों लगाव, इक चुराना निगाह का,
लाखों बनाव, इक बिगड़ना इताब में ।
लाखों बनाव, इक बिगड़ना इताब में ।
वो नाला दिल में ख़स के बराबर जगह न पाये,
जिस नाले से शिगाफ़ पड़े आफ़ताब में ।
वो सेह्र मुद्दा तल्बी में न काम आये,
जिस सेह्र से सफ़िना रवाँ हो सराब में ।
जिस सेह्र से सफ़िना रवाँ हो सराब में ।
'ग़ालिब' छुटी शराब, पर अब भी कभी कभी,
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में ।
- Complete Ghazal........
वो आके ख़्वाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे,
वले मुझे तपिश-ए-दिल मजाल-ए-ख़्वाब तो दे ।
दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हमको,
न दे जो बोसा तो मूँह से कहीं जवाब तो दे ।
'असद' ख़ुशी से मेरे हाथ पाँव फूल गए,
कहा जो उस ने ज़रा मेरे पाँव दाब तो दे ।
वले मुझे तपिश-ए-दिल मजाल-ए-ख़्वाब तो दे ।
करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना,
तेरी तरह कोई तेग़-ए-निगाह को आब तो दे ।
तेरी तरह कोई तेग़-ए-निगाह को आब तो दे ।
दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हमको,
न दे जो बोसा तो मूँह से कहीं जवाब तो दे ।
पिला दे ओक से साक़ी जो हमसे नफ़्रत है,
प्याला गर नहीं देता न दे, शराब तो दे ।
प्याला गर नहीं देता न दे, शराब तो दे ।
'असद' ख़ुशी से मेरे हाथ पाँव फूल गए,
कहा जो उस ने ज़रा मेरे पाँव दाब तो दे ।