Maana Ke Musht-E-Khak Se Badhkar Nahi Hoon Main.
माना के मुश्त-ए-ख़ाक से बढ़कर नहीं हूँ मैं,
लेकिन हवा के रहम-ओ-करम पर नहीं हूँ मैं ।
इन्सान हूँ धड़कते हुए दिल पे हाथ रख,
यूँ डूब कर न देख समन्दर नहीं हूँ मैं ।
चेहरे पे मल रहा हूँ सियाही नसीब की,
आईना हाथ में है सिकन्दर नहीं हूँ मैं ।
'ग़ालिब' तेरी ज़मीन में लिखी तो है ग़ज़ल,
तेरे कद-ए-सुखन के बराबर नहीं हूँ मैं ।
लेकिन हवा के रहम-ओ-करम पर नहीं हूँ मैं ।
इन्सान हूँ धड़कते हुए दिल पे हाथ रख,
यूँ डूब कर न देख समन्दर नहीं हूँ मैं ।
चेहरे पे मल रहा हूँ सियाही नसीब की,
आईना हाथ में है सिकन्दर नहीं हूँ मैं ।
'ग़ालिब' तेरी ज़मीन में लिखी तो है ग़ज़ल,
तेरे कद-ए-सुखन के बराबर नहीं हूँ मैं ।
- Muzaffar Warsi.
- Jagjit Singh.