Din Kuch Aise Guzarta Hai Koi Jaise Ehsaan Utarta Hai Koi. / दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई,
सहमा सहमा ड़रा सा रहता है, जाने क्यूँ जी भरा सा रहता है, एक पल देख लूँ तो उठता हूँ, जल गया सब ज़रा सा रहता है ।
दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई,
जैसे अहसान उतारता है कोई ।
आईना देख कर तसल्ली हुई,
हमको इस घर में जानता है कोई ।
पक गया है शज़र पे फल शायद,
फिर से पत्थर उछालता है कोई ।
तुम्हारे ग़म की ड़ली उठाकर जुबाँ पर रख ली है देख मैंने, ये कतरा कतरा पिघल रही है, न कतरा कतरा नीचे बहा ।
देर से गुँजते है सन्नाटे,
जैसे हमको पुकारता है कोई ।
फिर नज़र में लहू के छीटें हैं,
तुमको शायद मुग़ालता है कोई ।
दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई,
जैसे अहसान उतारता है कोई ।
आईना देख कर तसल्ली हुई,
हमको इस घर में जानता है कोई ।
पक गया है शज़र पे फल शायद,
फिर से पत्थर उछालता है कोई ।
तुम्हारे ग़म की ड़ली उठाकर जुबाँ पर रख ली है देख मैंने, ये कतरा कतरा पिघल रही है, न कतरा कतरा नीचे बहा ।
देर से गुँजते है सन्नाटे,
जैसे हमको पुकारता है कोई ।
फिर नज़र में लहू के छीटें हैं,
तुमको शायद मुग़ालता है कोई ।
- Gulzar.
- Jagjit Singh.