Zulmat Kade Mein Mere Shab-E-Gham Ka Josh Hai. / ज़ुल्मतकदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है,

ज़ुल्मतकदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है,
इक शम्मा है दलील-ए-सहर, सो ख़मोश है ।

दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई,
इक शम्मा रह गई है सो वो भी ख़मोश है ।

आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में,
'ग़ालिब', सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है ।
  • Mirza Asadullah Khan 'Ghalib'.
  • Jagjit Singh.

  • Complete Ghazal......
ज़ुल्मतकदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है,
इक शम्मा है दलील-ए-सहर, सो ख़मोश है ।

ना मुज़्दा-ए-विसाल न नज़्ज़ारा-ए-जमाल,
मुद्दत हुई कि आश्ती-ए-चश्म-ओ-गोश है ।

मै ने किया है हुस्न-ए-ख़ुदआर को बेहिजाब,
अए शौक़ याँ इजाज़त-ए-तस्लीम-ए-होश है ।

गौहर को इक्द-ए-गर्दन-ए-ख़ुबाँ में देखना,
क्या औज पर सितारा-ए-गौहरफ़रोश है ।

दीदार, वादा, हौसला, साक़ी, निगाह-ए-मस्त,
बज़्म-ए-ख़याल मैकदा-ए-बेख़रोश है ।

अए ताज़ा वारिदन-ए-बिसात-ए-हवा-ए-दिल,
ज़िंहार गर तुम्हें हवस-ए-न-ओ-नोश है ।

देखो मुझे जो दीदा-ए-इबरतनिगाह हो,
मेरी सुनो जो गोश-ए-नसीहतनियोश है ।

साक़ी बजल्वा दुश्मन-ए-इमाँ-ओ-आगही,
मुतरिब बनग़्मा रहज़न-ए-तम्कीन-ओ-होश है ।

या शब को देखते थे कि हर गोशा-ए-बिसात,
दामान-ए-बाग़बाँ-ओ-कफ़-ए-गुलफ़रोश है ।

लुत्फ़-ए-ख़ीराम-ए-साक़ी-ओ-ज़ौक़-ए-सदा-ए-चंग,
ये जन्नत-ए-निगाह वो फ़िर्दौस-ए-गोश है ।

य सुभ दम जो देखीये आकर तो बज़्म में,
ना वो सुरूर-ओ-सोज़ न जोश-ओ-ख़रोश है ।

दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई,
इक शम्मा रह गई है सो वो भी ख़मोश है ।

आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में,
'ग़ालिब', सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है ।