Har Ghadii Khud Se Uljana Hai Muqaddar Mera.
हर घड़ी खुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा,
मैं ही कश्ती हूँ मुझ ही में है समन्दर मेरा ।
एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे,
मेरी आँखों से खो गया कहीं मंज़र मेरा ।
किससे पूँछू के कहाँ गुम हूँ कई बरसों से,
हर जगह ढूँढता है फिरता है मुझे घर मेरा ।
मुद्दतें हो गई एक ख़्वाब सुनहरा देखे,
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा ।
मैं ही कश्ती हूँ मुझ ही में है समन्दर मेरा ।
एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे,
मेरी आँखों से खो गया कहीं मंज़र मेरा ।
किससे पूँछू के कहाँ गुम हूँ कई बरसों से,
हर जगह ढूँढता है फिरता है मुझे घर मेरा ।
मुद्दतें हो गई एक ख़्वाब सुनहरा देखे,
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा ।
- Nida Fazli.
- Jagjit Singh.